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दिनांक 15-10-2018 को मेरे आदरणीय दादा जी का स्वर्गवास हो गया परन्तु उनके और अपने बीच के वात्सल्य भाव को मैं जीवन भर भूल नही पाउगा न मैं उन्हें शब्दो का रूप दे सकता हूं परन्तु उनकी ही प्रेरणा और आर्शीवाद से मैं उन्ही भावों को शब्दों का रूप देने का एक प्रयास कर हूं जो मुझे इस दुःख की घड़ी में शायद एक नई चेतना प्रदान करे।यह कविता नही बल्कि कवितारूप में मेरे और मेरे दादा जी के वात्सल्य भाव का एक संवाद है- आपने ही हाथ पकड़ कर मुझको कांधे पर बैठाया था। छत का मुझे पता नही आकाश सा मुझ पर साया था।। माना कि जब मैंने तुमको भाग भाग के खूब थकाया था। पर तुम्ही थे जो कहते थे बेटा मैं जान न पाया था।। पापा से जब कुछ मिलता नही दादाजी तुम्हारा सहारा था। अब कौन मुझे बतलायेगा जो कहानियों में बचपन गुजरा था।। आर्शीवाद तुम्हरा इतना  है कि मैं सब कुछ पाया जीवन मे। दुर्भाग्य रहा पर इतना मुझ पर देख न पाया अंत समय मे।। आज हजारो लाखो मेरे सब कुछ जर्जर माटी है। आपका दिया एक रुपया मेरे जीवन की बहुमूल्य थाती है।। होली-दीवाली जब जब आये आप ही घर की रौनक थे। अब रंग-दीया सब फिके है जज्बातो